
यूक्रेन संकट: पुतिन की महात्वकांक्षा और अमेरिका की कमजोरी का नतीजा, भारत की भी बढ़ सकती हैं मुश्किलें
कल रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया. रूस ने यूक्रेन की राजधानी कीव के मुख्य एयरपोर्ट पर कब्जा कर लिया और मिसाइल हमले किए. इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन ने इस हमले की कड़ी निंदा की और कहा कि इस हमले में होने वाले नुकसान के लिए रूस जिम्मेदार होगा. उनके इस बयान का मतलब यही निकाला जा सकता है कि फिलहाल अमेरिका, रूस के ऊपर कोई सैन्य कार्रवाई नहीं करने जा रहा. हो सकता है कि उसके ऊपर आर्थिक प्रतिबंधों को और मजबूत कर दिया जाए. आखिर यह पूरा विवाद कहां से शुरू हुआ और इसके दूरगामी परिणाम क्या हो सकते हैं. आज हम इस पर बात करेंगे.
ब्लादिमीर पुतिन की महात्वकांक्षा-
ब्लादिमीर पुतिन 1999 से रूस में शक्तिशाली शख्सियत बने हुए हैं. 9 अगस्त से 31 दिसंबर 1999 तक वो प्रधानमंत्री रहे. इसके बाद, कार्यवाहक राष्ट्रपति बने और 7 मई 2000 को वो राष्ट्रपति बने. इसके बाद से रूस का नाम दिमाग में आते ही पहला नाम ब्लादिमीर पुतिन का ही आता है और दोनों एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं. पुतिन रूस के संविधान को अपने तरीके से चलाते रहे हैं. विरोधियों को दबाते रहे हैं. 2000 से 2008 तक राष्ट्रपति बने रहने के बाद उन्हें पद से हटना पड़ा क्योंकि रूस के संविधान के मुताबिक कोई भी व्यक्ति लगातार दो बार से ज्यादा राष्ट्रपति नहीं बना रह सकता. पुतिन ने इसका तोड़ निकाला. वह खुद प्रधानमंत्री बन गए और अपनी कठपुतली दिमित्री मेदवेदेव को राष्ट्रपति बना दिया. कहने को राष्ट्रपति मेदवेदेव थे लेकिन चलती पुतिन की ही थी. मेदवेदेव के दो कार्यकाल पूरा कर लेने के बाद पुतिन वापस राष्ट्रपति बन गए.
पुतिन महात्वकांक्षी बहुत ज्यादा हैं और इसीलिए वह सत्ता पर लगातार बने रहना चाहते हैं. शायद उनको यह भी लगता हो कि अमेरिका का सामना करने के लिए रूस में सबसे ज्यादा योग्य व्यक्ति वही हैं. पुतिन, सोवियत संघ के पुराने स्वरूप को बनाना चाहते हैं जिसके बारे में कहा जाता था कि इसके एक हिस्से में सूरज उगता है तो दूसरे में अस्त होता है. क्षेत्रफल में सबसे बड़ा और सेना के तौर पर भी सबसे शक्तिशाली. 19 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ का विघटन हुआ था जिसके बाद दुनिया के नक्शे पर 15 नए देश बन गए थे.
पुतिन इस विघटन के बारे में अपनी सोच पहले भी दुनिया को बता चुके हैं. 2005 में उन्होंने एक बयान देते हुए कहा, "सोवियत संघ का विघटन 20वीं सदी की सबसे बड़ी भू-राजनीतिक त्रासदी थी." पुतिन अब फिर से सोवियत संघ को पुराने दौर में ले जाना चाहते हैं. पुतिन का पहला निशाना चेचन्या था.
1991 में चेचन्या सोवियत संघ से अलग होकर एक देश बना, लेकिन वहां रूस का दखल नहीं रुका. काफ़ी लड़ाई के बाद, 2003 में वहां जनमत संग्रह करवाया गया. इस जनमत संग्रह के बाद का फैसला बड़ा विरोधभासी था. चेचन्या को स्वायत्तता दी गई लेकिन यह भी कहा गया कि यह रूस का ही हिस्सा रहेगा. वहां राष्ट्रपति चुनाव हुए और वहां रूस समर्थित राष्ट्रपति बनाया गया. चेचन्या को आज भी रूसी गणराज्य के तौर पर जाना जाता है.
इसके बाद पुतिन का अगला निशाना जॉर्जिया बना. 2008 में रूस ने यहां के दो राज्यों को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दे दिया. वहां अपने सैनिकों की तैनाती कर दी और इसके जरिए पुरे क्षेत्र पर नजर रखने लगा. रूस का अगला निशाना यूक्रेन बना, लेकिन यह अभी नहीं 2014 में ही हो गया जब यूक्रेन के क्रीमिया को रूस ने जबरदस्ती अपने देश में शामिल कर लिया था. उस समय बराक ओबामा अमेरिकी राष्ट्रपति थे. रूस के उस कदम को भी रोका नहीं जा सका था. यूक्रेन, सोवियत संघ में रूस के बाद सबसे बड़ा क्षेत्र था जिस पर आज रूस पूरी तरह से कब्जा करने को तैयार है. कुल मिलाकर व्लादिमीर पुतिन, अपने मिशन पर चल रहे हैं और अब तक उन्होंने जो चाहा है वह कर लिया है. आगे कितना कर पाते हैं यह देखने वाली बात होगी, लेकिन कहीं न कहीं, इस मिशन को हवा देने का काम अमेरिका और यूरोपीय देशों ने भी किया है.
अमेरिका और नाटो की घेराबंदी-
रूस अगर विस्तारवादी मिशन पर है, तो अमेरिका की भी दुनियाभर में प्रभुत्व स्थापित करने की महात्वकांक्षा किसी से छिपी नहीं है. अमेरिका अपने स्तर पर रूस को घेरने की कोशिश करता है. रूस दुनिया के सामने उसे अपनी आत्मरक्षा के तौर पर प्रदर्शित करता है और मौके का फायदा उठाकर अपना मकसद पूरा कर लेता है. दरअसल अमेरिका और नाटो देश चाहते थे कि यूक्रेन को नाटो का हिस्सा बना लिया जाए. नाटो, अमेरिका समेत कुल 29 देशों का संगठन है. यह संगठन सैन्य रूप से बेहद मजबूत है. सबसे बड़ी बात है कि नाटो का एक देश अगर किसी देश पर हमला करेगा तो सभी देश उसका साथ देंगे. इसी तरह नाटो के किसी एक देश पर हमले को पूरे नाटो संगठन पर हमला माना जाता है. यूक्रेन, रूस का पड़ोसी है. अगर यूक्रेन को नाटो में शामिल कर लिया जाता तो नाटो सैनिकों की तैनाती वहां हो जाती. नाटो की मौजूदगी का मतलब है, अमेरिका की मौजूदगी होना. रूस के लिए इसे बर्दाश्त करना मुश्किल था. ब्लादिमीर पुतिन ने कुछ दिन पहले बयान देते हुए कहा था कि अगर मेक्सिको और कनाडा में रूस अपनी मिसाइलें तैनात कर दे तो अमेरिका को कैसा लगेगा.
यूक्रेन की सरकार का रूख भी नाटो के साथ जाने का था. ऐसे में ब्लादिमीर पुतिन के लिए, दुनिया में इसे अपनी आत्मरक्षा का तरीका बताने का बहाना अच्छा था. खास बात यह है कि इतने उकसावे वाले कदम के बाद, जब रूस ने बड़ी कार्रवाई की तो अमेरिका ने अभी तक कड़ी निंदा के अलावा कुछ नहीं किया है. यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी कमजोर को ताकतवर के सामने लड़ने के लिए छोड़कर भाग जाना. रूस, यूक्रेन के दो राज्यों को पहले ही स्वतंत्र राज्य के तौर पर मान्यता दे चुका है और अब वह यूक्रेन में सत्ता परिवर्तन और उसकी सेना को खत्म करने की बात कर रहा है. जब दुनिया तमाशा देख रही है तो यह देखने वाली बात होगी कि पुतिन की महात्वकांक्षा कहां जाकर रुकती है.
इस पूरे संकट के परिणाम-
इस पूरे संकट से अमेरिका की छवि खराब हुई है. अमेरिका एक कमजोर राष्ट्र के तौर पर सामने आया है और एक कमजोर अमेरिका भी दुनिया के लिए खतरनाक है क्योंकि अब दुनिया में चीन के तौर पर भी एक नकारात्मक शक्ति तौर पर उभर रही है. चीन भी विस्तारवादी है और सबसे बड़ी बात है कि भारत का दुश्मन भी है. चीन, तिब्बत और हांगकांग पर कब्जा कर चुका है. जिस तरह से रूस ने यूक्रेन के साथ किया और दुनिया ने शांति से तमाशा देखा. उसके बाद, चीन की हिम्मत और बढ़ेगी. चीन अब ताइवान पर कब्जा करने की कोशिश करेगा. इसके अलावा, भारत के राज्यों पर कब्जा करने की कोशिश करेगा. चीन को इसमें पाकिस्तान का साथ भी मिलेगा. इस तरह यह है एक नई धुरी बन रही है. चीन, पाकिस्तान और रूस. ये धुरी भारत और दुनिया के लिए खतरनाक है. ज़रूरी है कि अमेरिका अपनी पुरानी भूमिका में वापस लौटे. शक्ति का संतुलन होना ज़रूरी है और अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसका नतीज़ा एक भीषण युद्ध के तौर पर भी दुनिया को झेलना पड़ सकता है.
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