
उत्तर प्रदेश: चार बड़े कारण जो बीजेपी को सत्ता में आने से रोक सकते हैं
कल के आर्टिकल में हमने बात की थी कि वो कौन से फ़ैक्टर हैं जो बीजेपी की जीत में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. आज हम उन चुनौतियों की बात करेंगे जो बीजेपी को सत्ता में आने से रोक सकती हैं और विपक्ष को सत्ता के करीब ले जा सकती हैं. बीजेपी सरकार (केंद्र और राज्य) ने जिस तरह से कुछ ऐसे काम किए जिन्होंने उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बनाया है तो कुछ ऐसे भी काम किए हैं जिनसे उनकी लोकप्रियता भी असर भी पड़ा है.
1. कोरोना काल के समय का कुप्रबंधन- कोरोना की दूसरी लहर के दौरान वैसे तो पूरे देश की ही हालत खराब थी लेकिन सबसे बड़ा राज्य होने के नाते यूपी की चर्चा होनी स्वाभाविक है. दूसरी लहर के दौरान यूपी की राजधानी लखनऊ से लेकर, पीएम के संसदीय क्षेत्र बनारस तक की हालत खराब हो गई. अस्पतालों में बेड नहीं, ऑक्सीजन नहीं. सड़कों पर ऑक्सीजन की कमी से मरते लोग और श्मशान घाट पर जलती लाशें. वो भयावह दौर सरकारी शिथिलता का परिणाम था. दूसरी लहर की पहले से कोई तैयारी नहीं की गई. नतीजा हुआ कि जब अचानक से दबाव बढ़ा तो पूरा सिस्टम ही बिखर गया. सरकारी आंकड़ों से कहीं ज़्यादा लोगों की मौतें हुईं और सरकार ने आंकड़ें माने तक नहीं.
अगर भारत में वास्तविकता में बुनियादी मुद्दों पर चुनाव होते तो यह मुद्दा सब पर भारी था, लेकिन ऐसा होता नहीं है. हम सभी भूलने में तेज़ हैं. खास बात तो यह है कि विपक्ष भी इस मुद्दे को उतनी प्रमुखता से नहीं उठा रहा है. अभी स्थितियां बन रही हैं उनमें कोरोना के केस बढ़ रहे हैं. अगर सरकार ने अपनी पिछली गलती से कुछ भी नहीं सीखा तो यह मुद्दा फिर से बनेगा और सरकार की स्थिति इससे कमजोर पड़ सकती है. हालांकि, विपक्ष का रवैया देखकर नहीं लगता कि वो भी ऐसे किसी मुद्दे पर जोर देगा लेकिन जिन लोगों को आज भी उस समय की याद होगी वो बीजेपी को वोट देने से पहले एक बार ज़रूर सोचेंगे.
2. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन से होने वाला नुकसान- किसान आंदोलन, कृषि कानूनों की वापसी के साथ खत्म हो चुका है, लेकिन इसने बीजेपी के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसे सवाल खड़े किए हैं जिनके जवाब अब शायद चुनाव नतीजों के साथ ही मिल पाएंगे. मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से पश्चिमी उत्तर प्रदेश बीजेपी का गढ़ सा बन गया था. पार्टी ने इसके दम पर 2014 का चुनाव जीता, 2017 का विधानसभा चुनाव जीता इसके बाद 2019 का भी लोकसभा चुनाव जीता. खास बात यह थी कि 2019 के चुनाव में सपा-बसपा और आरएलडी एक साथ मैदान में थे पर बीजेपी यहां भी सब पर भारी पड़ी. आरएलडी के दिवंगत नेता अजित सिंह को खुद हार का सामना करना पड़ा था लेकिन अब स्थितियां अलग हैं. कृषि कानूनों के बाद से बीजेपी के खिलाफ एक हवा बनी है. इसका फायदा आरएलडी और सपा को मिल सकता है. 80 सीटों वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अगर 50 सीटें भी अखिलेश-जयंत लाने में कामयाब रहे तो यह चुनाव पलट सकता है. इस बीच एक बड़ी बात यह भी है बीजेपी जीतती ज़रूर रही है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उसके सामने सभी जीरो ही थे. 2019 के चुनाव में भी टक्कर हुई थी. इसलिए, यह भी संभव है कि जो लोग किसान आंदोलन में नजर आए हो सकता है कि ये वही लोग हों जो पहले के चुनाव में बीजेपी के खिलाफ वोट करते रहे हैं. कुल मिलाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बीजेपी के लिए एक बड़ा सवाल तो है जिसको लेकर बीजेपी चिंता में ज़रूर होगी. बाकी एक पत्रकार के हैसियत से हम यही कह सकते हैं कि मुद्दा बड़ा है और 2-4 लोगों से बात करने के आधार पर राय नहीं बन सकती. इसलिए, पश्चिमी उत्तर प्रदेश किधर जाएगा यह जानने के लिए चुनाव नतीजों का इंतजार करना पड़ेगा.
3. रोजगार और प्रतियोगी परिक्षाओं का कुप्रबंधन- मौजूदा सरकार सभी क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियां गिनवा सकती है लेकिन वह रोजगार और प्रतियोगी परीक्षाओं के मामले में असफल साबित हुई है. प्रतियोगी परीक्षाओं के अधिकतर पेपर लीक होते रहे. लोग परीक्षा की तैयारी करते हैं. परीक्षाओं से उनकी उम्मीदें होती हैं और जब वो परीक्षा देकर घर लौटते हैं तो पता चलता है कि पेपर लीक हो गया है और उनकी सारी मेहनत बेकार चली गई है. ये बहुत ही निराशा पैदा करने वाला होता है. खास बात यह है कि ऐसा एक बार नहीं हुआ बल्कि लगातार होता रहा है और सिस्टम में कोई सुधार नहीं है. सरकार भविष्य में ऐसा न हो इसको रोकने के लिए क्या कर रही है ऐसा भी कुछ नहीं बताया गया है. इससे एक अविश्वास पैदा होता है. यह अविश्वास एक बड़े वोटर वर्ग में हैं जो वोट डालने जाते हैं. अगर वास्तविकता में इन लोगों के मन में वोट डालते वक्त यह ख्याल आता है कि जो सरकार एक पेपर ठीक से नहीं करवा सकती वो बाकी काम क्या करेगी, तो सरकार के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी.
4. विधायकों के प्रति नाराजगी- बीजेपी के लिए सबसे अच्छी बात ये है कि उनके पास दो बड़े चेहरे हैं जिनके दम पर उनको वोट मिल सकता है, लेकिन यही उनकी कमजोरी भी है. पार्टी के विधायक इससे लापरवाह हो जाते हैं और जनता से कट जाते हैं. उनका समय जनता के बीच कम, लखनऊ दरबार में ज्यादा गुजरने लगता है. नतीजा यह होता है कि जनता के काम नहीं होते और नाराजगी बढ़ती है. अगर विधायक जी को दोबारा टिकट मिलता है तो पार्टी के चेहरे की अच्छी इमेज के बावजूद लोग उनको वोट करने से कतराते हैं. फिलहाल, खबरों के मुताबिक पार्टी 100 विधायकों के टिकट काटने वाली है. बीजेपी में ऐसे विधायकों की संख्या बहुत ज़्यादा होगी. अगर सभी की पहचान करके सही तरीके से टिकट न बांटे गए तो पार्टी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है.
5. जातीय-धार्मिक समीकरण- जाति और धर्म की राजनीति पूरे देश में सबसे ऊपर है. हर मुद्दे से इतर यूपी की भी सच्चाई यही है. फिलहाल, चुनाव में सपा के साथ यादव-मुस्लिम समीकरण दिख रहा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश को देखें तो आरएलडी का साथ पाकर जाट भी इसमें जुड़ सकते हैं. बाकी बीजेपी के साथ सवर्ण, गैर-यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित दिख रहा है. इसमें भी यादव और जाटव का कुछ प्रतिशत बीजेपी के साथ जा सकता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट इनके साथ भी शामिल हैं. अगर कुछ ऐसा होता है कि सपा के साथ गैर-यादव ओबीसी वर्ग की कुछ जातियां आती हैं तो बीजेपी के लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है. ब्राह्मणों के बीजेपी से नाराज होने की बात की जा रही है और सपा उनको रिझाने की कोशिश भी कर रही है लेकिन ये बेहद मुश्किल है कि ब्राह्मण सपा के साथ जाएं. कुछ जगहों पर किसी विशेष नेता की वजह से कुछ वोट मिल जाएं वो अलग बात है लेकिन आम तौर पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है. कुल मिलाकर इस बार यूपी में जातिय समीकरण बहुत बंद से हैं. इनको बहुत ज़्यादा खुलकर पढ़ा नहीं जा सकता है. फिलहाल, जो स्थिति दिख रही है उसमें यही लगता है कि अगर सपा, यादव-मुस्लिम के अलावा जातियों को अपने साथ जोड़ पाई तो बीजेपी के लिए सत्ता की राह बहुत कठिन हो जाएगी.
कुल मिलाकर ये चार बड़ी चुनौतियां हैं जो बीजेपी के सामने नजर आ रही हैं. इनकी काट पार्टी ने ढूंढ ली तो जीत जाएगी. अगर नहीं तो सत्ता जा भी सकती है.
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