
"कोरोना काल" में डॉक्टर होना कितना कठिन है....
कोरोनावायरस भारत में अन्य देशों की अपेक्षा बहुत धीमी गति से फैल रहा है। सुकून भरी खबर है, इसलिए खुश होना लाजमी है।
ये असल तस्वीर का एक साइड है और यही इन दिनों आपको दिखाया जा रहा है। तस्वीर की दूसरी साइड में जो कुछ है, वो बहुत सारे लोग देखना नहीं चाहते। कुछ देखना चाहते हैं, तो देख नहीं सकते हैं और कुछ को देखकर भी नजरअंदाज करने का पहले ही अभ्यस्त बना दिया गया है। इन्हीं में से किसी एक खांचे में मैं भी हूं और आप भी हैं। कछुआ और खरगोश की कहानी हम सभी को याद है। अभी भले हमें खरगोश की गति से तैयारियां दिखाई जा रही हैं, मगर मेरा डर है कि इस रेस में कोरोनावायरस कछुआ होकर भी जीत न जाए। आगे मैं जो कुछ भी लिख रहा हूं, वो कुछ मेरी राय है और कुछ डॉक्टर्स से बातचीत पर आधारित जानकारियां हैं, जो शायद आपको पूरी तस्वीर को समझने में मदद करें।
भारत में लगातार डॉक्टर्स और मेडिकल स्टाफ के कोरोनावायरस से संक्रमित होने की खबरें आ रही हैं। पिछले दिनों इंदौर से एक डॉक्टर की मौत की भी सूचना आई। मुंबई में 3 डॉक्टर्स सहित 40 से ज्यादा मेडिकल स्टाफ के संक्रमित होने के बाद 2 अस्पतालों को सील करना पड़ा। सैकड़ों की तादाद में मेडिकल स्टाफ इस समय क्वारंटीन किए गए हैं। इससे यह बात तो साफ है कि डॉक्टर्स अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, लेकिन उनके पास सुरक्षा के लिए जरूरी सामानों की कमी है।
अब सवाल ये है कि 135 करोड़ की आबादी वाले इस विशाल देश के प्रधानमंत्री जब देश को बार-बार "ताली, थाली और दीवाली" वाले ईवेंट्स के जरिए समझा रहे हैं कि इस समय कोरोनावायरस के खिलाफ जंग में डॉक्टर्स ही हमारे 'फ्रंटलाइन वारियर्स' हैं और इनका सम्मान किया जाना चाहिए, तो ये सब किसकी गलती से हो रहा है कि मेडिकल स्टाफ की ही सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा रही है?
भारत में वैसे ही डॉक्टर्स की कमी है। गांवों के अस्पतालों की हालत शहरी लोगों की कल्पना से भी बुरी है। अस्पतालों में वेंटिलेटर्स तो छोड़िए पर्याप्त बेड भी नहीं हैं, जिनपर लिटाकर मरीज का मनोबल ही बढ़ा सकें कि इलाज चल रहा है, सब ठीक हो जाएगा। ऐसे समय में जब एक-एक अस्पताल, एक-एक डॉक्टर और एक-एक मेडिकल स्टाफ हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं, तो इन्हें 'मरने' के लिए छोड़ देना किस दर्जे की लापरवाही का संकेत है। ग्वालियर में 50 जूनियर डॉक्टर्स ने इस्तीफा दे दिया। वो इस इस्तीफे के एवज में 5 लाख रुपए का जुर्माना भरने के लिए भी राजी हो गए हैं। आपका टीवी आपको बताएगा कि इस्तीफा देने वाले ये डॉक्टर्स असल में "विलेन" हैं क्योंकि विपत्तिकाल में वो मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। लेकिन क्या ये राय बनाने से पहले आपको डॉक्टर्स का पक्ष नहीं जानना चाहिए?
कोरोना की इस जंग में उतरे एक सरकारी डॉक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर अपना पक्ष रखा है। उन्होंने बताया कि उनके जिले में लगभग 50 संदिग्ध मरीज पाए गए हैं। इनमें से ज्यादातर की जांच निगेटिव आई है। सरकार ने पहले स्थिति को देखते हुए OPD बंद करने का आदेश दिया था। मगर अब आदेश आया है कि OPD को दोबारा शुरू किया जाए और सामान्य मरीजों को देखा जाए। डॉक्टर बताते हैं कि, "सीजन ऐसा है कि सामान्य मरीजों में बड़ी संख्या सर्दी, जुकाम, बुखार और खांसी के मरीजों की होती है। इन्हें देखना और जांच के लिए इन्हें छूना हमारी मजबूरी है। छूने पर संक्रमण का खतरा भी है। लेकिन सरकार की तरफ से हमें कोई सुरक्षा सामग्री नहीं उपलब्ध कराई गई है। अस्पताल में लगभग 50 स्टाफ हैं और 500 के आसपास सर्जिकल मास्क हैं। इन्हें भी विपरीत परिस्थितियों के लिए बचा कर रखा गया है। फिलहाल मैं खुद एक मास्क को 6-7 दिन तक इस्तेमाल कर रहा हूं, जो कि मास्क न पहनने के ही बराबर है। 50 स्टाफ पर हमें सिर्फ 3 PPE किट भेजी गई हैं। इस पर भी डीएम साहब का आदेश है कि आप इन्हें बेवजह खराब न करें क्योंकि आगे PPE किट के मिलने की संभावना नहीं है। फिलहाल हमें सामान्य कपड़े वाले एप्रन को ही स्टीम करके पहनने की हिदायत दी गई है।"
एक अन्य डॉक्टर बताते हैं, "एक सरकारी डॉक्टर के लिए यह भी संभव नहीं है कि वो किसी मरीज को देखने से मना कर दे और न ही डॉक्टर का धर्म उन्हें ये आदेश देता है। ऐसी स्थिति में अगर कोई कोरोनावायरस का संक्रमित व्यक्ति सामने आकर बैठ गया, तो हमें या हमारे स्टाफ को संक्रमित होने से कौन बचा पाएगा? और हमारे संक्रमित होने के बाद अगले मरीजों में अगर ये संक्रमण फैला, तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी?" जाहिर है कि फिर आपको आपका टीवी बताएगा कि इस बार भी गलती डॉक्टर्स की है। संक्रमित होने के बाद भी वो मरीजों को क्यों देखते रहे। लेकिन ये तर्क करते समय आप इस बात को भूल जाएंगे कि कभी-कभी कोरोनावायरस के लक्षण दिखने में 14 दिन लग जाते हैं, जबकि संक्रमित होने के 3-4 दिन बाद ही व्यक्ति इसे प्रसारित करने लगता है।
बुद्धिजीवी लोग अगला तर्क ये दे सकते हैं कि फिलहाल सरकार का ध्यान उन इलाकों के अस्पतालों में ज्यादा है, जिन्हें कोरोनावायरस हॉटस्पॉट चिन्हित किया गया है। अगर इस बात को मान लें, तो लग रहा है कि देश के बाकी डॉक्टर्स के लिए इन दिनों "एक पॉजिटिव मरीज लाइए और पर्याप्त सुरक्षा सामग्री पाइए" वाली स्कीम चल रही है। और डॉक्टर्स इस स्कीम में "बेटर लक नेक्स्ट टाइम" की उम्मीद लगाए, अपने-अपने कामों में लगे हुए हैं।
(इस लेख को राजनीतिक चश्मे से देखने की ज़हमत न करें क्योंकि ये हाल उन राज्यों का भी है, जहां आपकी विचारधारा को सपोर्ट करने वाली पार्टी का शासन नहीं है।)
Post new comment